मुकेश त्यागी

मुकेश त्यागी की कलम से (वर्तनी सुधार डीपसीक, लेखक अपनी फेसबुक पोस्ट में ड के नीचे बिंदी लगाना भूल जाते हैं)

‘ओह माई गॉड! दिल्ली से जयपुर 30 मिनट में’
बुलेट ट्रेन तो छोड़ो, साधारण गाड़ियां चला नहीं पा रहे और सपने हाइपरलूप के!

2019 में बुलेट ट्रेन चल जानी थी, पर अब कोशिश ये है कि 2027 में किसी तरह गुजरात के अंदर के एक हिस्से में एक थोड़ी तेज रफ्तार की गाड़ी चलाकर प्रचार का समां बांध लिया जाए। ओरिजनल योजना वाली बुलेट ट्रेन अब 2033 तक चलने की बात हो रही है। उधर, इस बीच हालत यह है कि दूर-दराज का तो कहना ही क्या, राजधानी दिल्ली तक से हर ओर गाड़ियों की कमी से भीड़ की मारामारी बढ़ती ही चली जा रही है।

इस बीच ये हाइपरलूप का नया सपना दिखाने का क्या मतलब है? इसके पीछे हमें मौजूदा पूंजीवादी आर्थिक संकट के दौर में इन बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स की भूमिका और उन पर इतने जोर की वजह को समझना जरूरी होगा।

ऐसे देखिए कि जितने खर्च में दिल्ली-मेरठ के बीच पहले से मौजूद डबल रेल ट्रैक पर हर दस मिनट में 2-3 हजार यात्रियों की क्षमता वाली 12 डिब्बे की ईएमयू सेवा चलाई जा सकती थी, उससे कई गुना खर्च में उससे बहुत कम क्षमता वाली आरआरटीएस बनाई जा रही है, जो आंशिक तौर पर चल चुकी है।

लेकिन इस वजह से इसका भाड़ा ईएमयू के भाड़े से 8-10 गुना महंगा हो गया है और मेरठ-दिल्ली के बीच के रोजाना मुसाफिरों की बड़ी तादाद इसमें सफर नहीं कर सकती और वो इस विकसित ‘क्रांतिकारी’ इंफ्रास्ट्रक्चर के बजाय पुराने तकलीफदेह भारी भीड़ भरे धीमे रेल-सड़क साधनों का इस्तेमाल करने को विवश हैं। अर्थात सिर्फ अमीरों की एक अल्पसंख्या के लिए सुविधा वाली यह ‘क्रांतिकारी’ आरआरटीएस भारी घाटे में रहने वाली है।

पर आरआरटीएस को मुसाफिर मिलें या नहीं, इस पर जो पूंजी निवेश हुआ है, उस पर ऊंचे न्यूनतम मुनाफे की गारंटी सरकार ने ली है। सरकार पूंजीपतियों को घाटा न होने देने के लिए कृतसंकल्प है। अर्थात पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए सरकार जनता पर अप्रत्यक्ष करों व शुल्कों का बोझ और भी बढ़ाएगी तथा शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, सफाई वगैरह की सार्वजनिक सुविधाओं पर खर्च को और कम कर देगी।

पूंजीवाद ने जो गहरा आर्थिक संकट पैदा किया है, उसके चलते उसके उत्पादों की बिक्री के लिए बाजार में सामान्य तौर पर मांग पैदा नहीं हो रही है। अतः पूंजीपति वर्ग की मैनेजमेंट कमेटी बतौर सरकार बिना जनता की ओर से किसी मांग के ही इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स व सैन्यवाद के जरिए कृत्रिम मांग तैयार कर रही है और फिर इस मांग के जरिए कुछ मोनोपॉली कॉर्पोरेट पूंजीपतियों के लिए मांग व मुनाफा सुनिश्चित कर रही है। सामान्य पूंजीवादी तरीके से सुपर मुनाफा पाने में अड़चन की वजह से पूंजीपतियों ने यह ‘असाधारण’ रास्ता चुना है।

मोनोपॉली कॉर्पोरेट पूंजी व प्रतिगामी हिंदुत्ववादी विचारों वाली राजनीतिक पार्टी के बीच गठजोड़ अर्थात मुसोलिनी की परिभाषा मुताबिक कॉर्पोरेटवाद या फासीवाद का यही बुनियादी आधार है। इसीलिए पूंजीपति इस सरकार को सत्ता में लाए हैं और इसकी सत्ता न जाने पाए, उसके लिए अपने मालिकाने के गोदी मीडिया के युद्धस्तरीय प्रोपैगैंडा सहित अपने धन की पूरी ताकत उसके दकियानूसी अंधतावादी नफरती विचारों के प्रचार में झोंके हुए हैं।

इसका दूसरा पक्ष यह है कि आम जनता से भारी टैक्स व शुल्क वसूली तथा कल्याणकारी खर्च में हरचंद कटौती से पैसा जुटाकर अल्पसंख्यक अमीरों की सुविधा के लिए जो तमाम इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स बनाए जा रहे हैं, उनसे ही देश की छोटी अमीर-संपन्न आबादी (ये अपने को झूठे ही बेचारा मध्यम वर्ग कहते हैं) के लिए चमकदार सुविधाएं जुटाई जा रही हैं। इसलिए यह अमीर ‘मध्य’ वर्ग भी मौजूदा फासीवादी सत्ता व नीति के पीछे पूरी तत्परता से खड़ा है। यह तथाकथित ‘मध्य’ वर्ग ही मीडिया व शिक्षा संस्थानों से लेकर आरडब्ल्यूए वगैरह तक सबसे बड़बोली व प्रभुत्वशाली ओपिनियन मेकर भूमिका में है और इसकी इस प्रतिबद्धता का प्रभाव हर जगह साफ देखा जा सकता है। इस तथाकथित ‘मध्य’ पर वास्तव में संपन्न वर्ग में ऐतिहासिक कारणों से सवर्ण पृष्ठभूमि वालों की बहुसंख्या है, और मौजूदा स्थिति में उनकी प्रतिबद्धता जाहिर ही है। पर इसमें जो कुछ थोड़ी संख्या दलित वंचित समुदायों की पृष्ठभूमि से पहुंचे हैं, वो भी अपनी इस वर्गीय अवस्थिति की वजह से आज इस फासीवादी सत्ता के प्रति ही वफादार हैं, चाहे जाति अत्याचार के नाम पर कितना भी दलितवादी बातें बोलते रहें, पर सभी के हित की हर कल्याणकारी सार्वजनिक योजना के वे भी उतने ही कटिबद्ध होकर विरोधी हैं।